कुछ भी तो नहीं बदला
सबकुछ बस अपने जगहों पर धड़ी की धड़ी
मगर सुनसान, बिलकुल खामोश
चाहे मानवता की बातें हो
या फिर सभ्यता, संस्कृति और धर्म ग्रंथों की बातें
हर कोई इन बातों कों जानता है, समझता है,
पर कोई इसका
अनुपालन करने की बात तक भी
अपने मन में नहीं लाता।
आखिर कबतक चलता रहेगा ये सब?
कब तक लुटती रहेगी
गरीब बेसहाय की अस्मतें
धर्म और मजहब के नाम पर
दंगा फसाद, खुलेआम कत्तलेआम
और अपने निजी स्वार्थ वश भाई-भाई की हत्या ।
आखिर क्यों ?
हमारे धरोहर-हमारे बुजुगों के सपनें
इस कदर टूट-टूटकर बिखर रही है
हजारों लाखों कुर्बानियाँ व्यर्थ जा रही है
जो कभी अपने घरती को स्वर्ग सा बनने, संवारने
और अमन-चैन की जिंदगी का जजवा लिए
सदा-सदा के लिए सो गये।
आखिर क्यों नहीं ?
हमारी बुराइयाँ समाप्त हो रही है
क्यों बेअसर हो रहे हैं,
वो अनमोल रत्नों के प्रभाव
जो हमारी विरासत से मिली है
चाहे रामायण, भागवत गीता की बातें हो
या फिर बाइबिल और कुर्रान की।
सब की बातें-सब का महत्व
सिर्फ बातें बनकर रह जा रही है ।
यहाँ तक की हर कोई बदलना चाह रहा है
अपने आप को और इस फिंजा को
इन चिलचिलाती मौसम को
जहाँ खुशहाली की इक नन्ही धटा तक भी,
दूर तक नहीं दिखती।
फिर खुशियों की बरसात कहाँ, हर तरफ
सिर्फ तबाही और भाग-दौड़ भरी जिंदगी ।
आखिर कबतक छुटकारा मिलेगा
उन चंद विषैले नाग से
जो पवित्र स्थल के प्रतिमा के आड़ में छुपकर
पहले परिवार फिर समाज और अंततः सारे देश में
अपने विष फैलाकर-देशवाशियों को नशा युक्त कर
लुटता खसोटा है और वही सब
देखने पर मजबूर करता है
जो वह दिखना चाहता है ।
आज शायद इसी वजह से
इन कलमों की तकत को नाकारा जा रहा है
मगर यह रूकेगी नहीं
निरंतर अपने अपने प्रयासों के सम्मुख रहकर
विजय दिलायेगी और विजय हमें अवश्य मिलेंगी
क्योंकि चाहे आज का समाज जैसा भी हो
हम कल को जरूर संवारेंगे और
एक सुन्दर, सुखमय और भविष्यमय
कल के समाज को बनायेंगें
इस बात का अब हम सभी प्रण ले चुके है ।।
सबकुछ बस अपने जगहों पर धड़ी की धड़ी
मगर सुनसान, बिलकुल खामोश
चाहे मानवता की बातें हो
या फिर सभ्यता, संस्कृति और धर्म ग्रंथों की बातें
हर कोई इन बातों कों जानता है, समझता है,
पर कोई इसका
अनुपालन करने की बात तक भी
अपने मन में नहीं लाता।
आखिर कबतक चलता रहेगा ये सब?
कब तक लुटती रहेगी
गरीब बेसहाय की अस्मतें
धर्म और मजहब के नाम पर
दंगा फसाद, खुलेआम कत्तलेआम
और अपने निजी स्वार्थ वश भाई-भाई की हत्या ।
आखिर क्यों ?
हमारे धरोहर-हमारे बुजुगों के सपनें
इस कदर टूट-टूटकर बिखर रही है
हजारों लाखों कुर्बानियाँ व्यर्थ जा रही है
जो कभी अपने घरती को स्वर्ग सा बनने, संवारने
और अमन-चैन की जिंदगी का जजवा लिए
सदा-सदा के लिए सो गये।
आखिर क्यों नहीं ?
हमारी बुराइयाँ समाप्त हो रही है
क्यों बेअसर हो रहे हैं,
वो अनमोल रत्नों के प्रभाव
जो हमारी विरासत से मिली है
चाहे रामायण, भागवत गीता की बातें हो
या फिर बाइबिल और कुर्रान की।
सब की बातें-सब का महत्व
सिर्फ बातें बनकर रह जा रही है ।
यहाँ तक की हर कोई बदलना चाह रहा है
अपने आप को और इस फिंजा को
इन चिलचिलाती मौसम को
जहाँ खुशहाली की इक नन्ही धटा तक भी,
दूर तक नहीं दिखती।
फिर खुशियों की बरसात कहाँ, हर तरफ
सिर्फ तबाही और भाग-दौड़ भरी जिंदगी ।
आखिर कबतक छुटकारा मिलेगा
उन चंद विषैले नाग से
जो पवित्र स्थल के प्रतिमा के आड़ में छुपकर
पहले परिवार फिर समाज और अंततः सारे देश में
अपने विष फैलाकर-देशवाशियों को नशा युक्त कर
लुटता खसोटा है और वही सब
देखने पर मजबूर करता है
जो वह दिखना चाहता है ।
आज शायद इसी वजह से
इन कलमों की तकत को नाकारा जा रहा है
मगर यह रूकेगी नहीं
निरंतर अपने अपने प्रयासों के सम्मुख रहकर
विजय दिलायेगी और विजय हमें अवश्य मिलेंगी
क्योंकि चाहे आज का समाज जैसा भी हो
हम कल को जरूर संवारेंगे और
एक सुन्दर, सुखमय और भविष्यमय
कल के समाज को बनायेंगें
इस बात का अब हम सभी प्रण ले चुके है ।।